सरकार को चार वर्ष हो गए, पर वन वनमंत्री ने बस्तर के वन भू- भाग में कदम नहीं रखा
बस्तर /बस्तर संभाग में दक्षिण और पश्चिम जिलों के अनेक क्षेत्रों में एक लम्बे अर्से से अवैध कटाई का सिलसिला जिस तरह चलता चला जा रहा है, उससे निश्चित ही साल वनों के इस वनांचल के भू विहिन होने का खतरा धीरे-धीरे मंडराना प्रारंभ हो गया है।
इसे बिडंबना ही कहेंगे कि बस्तर में वनों की सुरक्षा के लिए वन विभाग का सबसे बड़ा अमला पदस्थ है फिर भी आज बस्तर में पर्यावरण की चिंता सताने लगी है, अवैध कटाई को प्रशासनिक स्तर पर जल्दी स्वीकारा नहीं जाता और जब तक राज्य स्तर पर इस पर कड़ी कार्यवाही के लिऐ कदम नहीं उठाए जाएगें तब तक यह सिलसिला संभवतः नहीं रूकेगा। अगर इन क्षेत्रों पर गौर डाले तो यह स्वतः स्पष्ट होता है कि हजारों हैक्टेअर वन भूमि अवैध कटाई की भेंट चड़ चुकी है। और अब इन सपाट मैदानों में कच्चे-पक्के घर बनाकर अतिक्रमण में भी तेजी आई है, शायद इसमें अतिशयोक्ति नही होगी अगर यह कहा जाए कि केन्द्र सरकार के 1980 के वन अधिनियम की बस्तर में धज्जियां उड़ रही है? यह नियम अगर क्रियान्वित रहता तो वन भूमि को न तो अतिक्रमण हो सकता और न ही आरक्षित वन भूमि में आवास न ही कोई निर्माण कार्य संपादित किया जा सकता है और अगर किया भी जाये तो केन्द्र से इसकी इजाजत की निर्धारण प्रक्रिया पूरी करना कानून है, यही कारण है पिछले 40 वर्षों से बस्तर की बोधघाट विद्युत परियोजना रूकी हुई है, इसी तरह जल संसाधन विभाग की मध्ययम परियोजना कोसारटेडा भी प्रारंभ होने के बाद 1980 नियम के तहत बंद कर दी गई थी, आगे 20 वर्ष बाद इसे स्वीकृति निकली तब यह 4 करोड़ लागत की परियोेजना 150 करोड़ में पूर्ण हो सकी। लेकिन अवैध कटाई का जो धंधा चल रहा है उससे वन विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों सहित जिनके कंधों पे कार्यभार है वन विभाग की अब उन सभी की भूमिका संदिग्ध लगने लगी है।
इस बात को भी नही नकारा जा सकता कि कुछ क्षेत्रों में नक्सिलियों का खुला संरक्षण है ग्रामीणों को। बस्तर के माननीय नेतागण भी आदिवासियों के हितों की दुहाई देने से कभी नहीं चूकते खासतौर पर यह बताना कि इन्हें अपनी जमीन और वन से बेहद प्यार है, पर सच्चाई का दूसरा पहलू यह है कि वनों की विनाश लीला में भी वनवासियों का हाथ है, वर्तमान में मिट्टी के लाल इंटों के निर्माण पर प्रतिवंध है पर दर्जनों ईंटा भट्टे चल रहे हैं, तो गांव-गांव शराब भट्टियों से रोजगार चल रहा है इन सभी में लगती है बेहिसाव लकड़ी जो खुलकर वनों से ही लाई जाती है?
कहीं-कहीं वनवासियों ने खेती के उत्साह को लेकर भी वनों को साफ किया है और ऐसे कारणों से ही वन चोरों एवं तस्करों को मौका मिल जाता है। सूक्ष्मता से अगर कई वनपरिक्षेत्रों को देखें तो वहां अब बस्तियां बसती जा रही हैं।
पर खेद का विषय है कि राजनैतिक महात्वाकांक्षाओं में डूबे नेतागण वोट बैंक को अपने हित में लाने के लिऐ नियमानुसार पट्टे वितरण के पुछल्ले छोड़ने से बाज नहीं आते जो वनवासियों को अवैध कटाई करने को प्रेरित करते है और खाली जगह में अपने बांस बल्ली गाड़ कर रहने लगते है, तब कहीं-कहीं वन अमले द्वारा उनको हटाया भी जाता है तब यही कहावत चरितार्थ होती है अब पछताए क्या होत, जब चिड़िया चुग गई खेत यही नही वन अधिनियम1980 की उपेक्षा के उदाहरण हमेशा आते रहे और व्यवस्थापन जैसे कार्य भी आरक्षित वन क्षेत्रों में हुऐ हैं, अब ऐसे में वनों का खात्मा नही होगा तो क्या होगा वही र्प्यावरण असंतुलित होने की चर्चाएं भी होगी तथा स्थिति निर्मित भी होगी।
अगर इसको भी देखा और समझा जाए कि पूर्व में वन मंत्री शिव नेताम, विक्रम उसेंन्डी, महेश गागड़ा रह चुके है जो बस्तर के ही चुने हुऐ आदिवासी नेता थे, पर आज छत्तीसगढ़ के वन मंत्री मोहम्मद अकबर है और कांग्रेस सरकार अपने चार वर्ष पूरे कर चुकी है पर अभी तक वन मंत्री ने अपने चरण कमल बस्तर में नहीं रखे, जबकि राज्य का सबसे अधिक वन भू भाग वाला है यह क्षेत्र…।